11.गुप्त काल का शासन Rule of Gupta period

गुप्त काल का शासन Rule of Gupta period 

 

गुप्त काल को स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है?Why is the Gupta period called the Golden Age?

क्योंकि इस काल में भारत में विभिन्न क्षेत्रों में अद्वितीय प्रगति हुई। यह काल लगभग 320 से 550 ईस्वी तक चला। गुप्त वंश के शासकों ने भारत को एक मजबूत और समृद्धिशाली राष्ट्र बनाया।
गुप्त काल की प्रमुख विशेषताएं-

1. राजनीतिक स्थिरता- गुप्त शासकों ने एक मजबूत और केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित की, जिससे राजनीतिक स्थिरता आई।

2.आर्थिक समृद्धि- व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि हुई, और भारत एक महत्वपूर्ण आर्थिक शक्ति बन गया।

3.सांस्कृतिक विकास- गुप्त काल में कला, साहित्य, विज्ञान और दर्शन में महत्वपूर्ण योगदान हुआ।

4.शिक्षा और विज्ञान- नालंदा और विक्रमशिला जैसे प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, जिन्होंने विश्वभर के छात्रों को आकर्षित किया।

  1. 5.धार्मिक सहिष्णुता- गुप्त शासकों ने हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों को समान रूप से समर्थन दिया। Rule of Gupta period

गुप्त काल के प्रमुख शासक-
1. चंद्रगुप्त प्रथम
2. समुद्रगुप्त
3. चंद्रगुप्त द्वितीय
4. कुमारगुप्त
इन शासकों ने भारत को एक शक्तिशाली और समृद्धिशाली राष्ट्र बनाया, जिसके कारण गुप्त काल को स्वर्णयुग कहा जाता है। Rule of Gupta period

गुप्त प्रशासन (राजनीतिक)  गुप्त काल का शासन Rule of Gupta period

गुप्त प्रशासन (राजनैतिक)
प्रस्तावना गुप्तों की प्रशासनिक व्यवस्था की जानकरी 300-600 AD के स्मृतिशास्त्रों से प्राप्त किया जाता है। इसके अलावा गुप्त राजाओं के मुहरों, सिक्कों से भी केन्द्रीय और प्रान्तीय प्रशासनिक व्यवस्था के बारे में कुछ जानकारी मिलती है। वस्तुतः गुप्त काल तक राजनीती से संबन्धित नियम स्पष्ट हो चुके थे। नारद और बृहस्पती में अत्यंत उन्नत राजनैतिक व्यवस्था का प्रमाण पाते हैं। धर्मशास्त्रों मे बताए कर्तव्यों का पालन करना राजाओं का प्रमुख कर्तव्य माना गया था। गुप्त राजाओं को सामंतो का स्वायत्त अधिकार था। आर्थिक संस्थाओं पर राजा का अधिकार नहीं था और उन्हें श्रेणी धर्म ही मानना पड़ता था। जिस प्रकार सातवाहन शासन काल में राजतंत्र के अन्तर्गत माता या रानियों के अधिकार को स्विकार किया

केंद्रीय प्रशासन-
राजा
राजाओं का प्रमुख कर्तव्य था की वह अपने लोगों को नियुक्त करे। गुप्त राजाओं ने कुषाण और सातवाहनों की तरह महाराजाधिराज और परमभागवत जैसी उपाधियाँ धारण की थी। इन उपाधियों से स्पष्ट है की गुप्त राजाओं ने अधीनस्थ राजाओं के अधिकार को स्वीकार किया था।

स्मृतीशास्त्रों मे राजा को किसानों से कर संग्रह करने का अधिकार दिया गया है। क्योंकि वह किसान के परिवारों और संपत्ति का रक्षक था। काव्यान स्मृती में लिखा है कि राजा संपूर्ण क्षेत्र का स्वामी होने के कारण कर ले सकता है।यह राजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण विकास है । इसी कर के नाम पर राजा भूमि को ठेके में दिया करते थे।गुप्तकाल मे क्रषि क्षेत्र को ठेके में देकर कर वसूल करते थे ।आधुनिक समय में इसे हम अधिया भी कह सकते है।इस प्रकार इस काल में सामंत पद्धति (पड़ोसियों) को बढ़ावा मिला। Rule of Gupta period

गुप्तकाल के राजाओं की तुलना देवताओं से की गयी है और इन्होंने देवताओं की उपाधियाँ भी ग्रहण की थी। देवताओं से जुड़े होने के बावजूद गुप्त शासक अपनी मनमानी नहीं करते थे।

मंत्रीमंडल-
गुप्त राजा प्रशासन में सहायता के लिए मंत्रियों की नियुक्ती करते थे। कौटिल्य ने मंत्रीमंडल को सिमित रखने की बात कही है। जबकि गुप्त काल की स्मृतियों मे अनुमान लगाया जा सकता है कि 8 से 20 मंत्री हुआ करते थे। जिस प्रकार मौर्य काल मे अमात्य शब्द का प्रयोग किया गया है, अमात्य के साथ कुमारामात्य शब्द का भी प्रयोग है। कुमारामात्यों को विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था जैसे न्यायाधीश, विषयपती। इतिहासकारों ने कुमारामात्य की तुलना आज के ब्यूरोक्रेट से की है।Rule of Gupta period

केन्द्रीय मंत्रियों में सबसे महत्वपूर्ण संधि करने वाला था जो शान्ति एवं युद्ध दोनों समय पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। इतना ही नहीं, यह राजा और उनके पड़ोसीयों के बीच सही संबंध बनाये रखने में मदद करता था, बल्कि बाहरी इलाकों में भूमि ठेके में देने के लिए भी इनकी अनुमती आवश्यक थी। गुप्तकाल के पदाधिकारी वर्ग की एक खास विशेषता यह है कि राजवंश की तरह ये भी वंश के आधार पर चलता था। मध्य भारत से प्राप्त ताम्रपत्रों से स्पष्ट है कि एक ही परिवार के तीन सदस्य अमात्य (सचिव,सलाहकार) पद पर नियुक्त किये गये। साथ ही एक व्यक्ति को कई एक पदों पर नियुक्त किया जाता था। जैसे हरिषेण स्मृतिशास्त्री के अनुसार राजा मंत्रियों को पदमुक्त कर सकता था लेकीन व्यवहारिक तौर पर देखा जाये तो इनके क्षेत्रिय प्रभाव के कारण इन्हें नियुक्त करना आसान नहीं था। मंत्रिवर्ग को वेतन किस प्रकार दिया जाता था इसका स्पष्ट प्रमाण नहीं है अर्थात अर्थशास्त्र की तरह स्मृतिशास्त्रों में स्पष्ट वर्णन नही है। गुप्तकाल में स्वर्णमुद्रा की संख्या ठीक ठाक पायी गयी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है पदाधिकारी और खासकर सैनिक अधिकारियों को नगद वेतन जाता था। लेकीन काहयान के वितरण से ऐसा नहीं लगता, उसने स्पष्ट लिखा है कि पदाधिकारी वर्ग को नगद वेतन के साथ स्पष्ट रूप से राजस्व या क्षेत्र पर अधिकार दिया जाता था। ऐसा पहले से भी चला आ रहा था क्योंकी मनुस्मृती में पदाधिकारियों को राजस्व के प्रतिशत के माध्यम से वेतन देने का वर्णन है। Rule of Gupta period

गुप्त काल मे मौर्ययुग की तरह कर वसूलने का कोई ज़्यादा प्रमाण नहीं है।साधन के अभाव के कारण उपहार और वस्तु के रूप में कर लेने या वेतन देने की व्यवस्था रही होगी। गुप्त प्रशासकों ने सेना के माध्यम से विशाल साम्राज्य पर तो अधिकार किया था लेकीन गुप्तों के केन्द्रिय सैनिक प्रशासन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। अनुमान है कि पूर्व युगों के तरह सेना के चार अंग रहे होंगे,कृषाणों के काल में अश्वारोही सेना का महत्व बढ़ गया तो गुप्त साम्राज्य में भी ऐसा हुआ होगा। गुप्तों के मुहरों पर अश्वपति जैसे उपाधियों के प्रमाण मिले हैं जिससे घुडसवारों का महत्व स्पष्ट है। गजसेना का भी महत्व बना रहा होगा क्योंकि पिलुपती शब्द का वर्णन है। अन्य सैनिक अधिकारियों का भी वर्णन है जिसमे महाप्रतिहार बलाधिकृत ओर ग्होल्मिक है। अपनी सीमा क्षेत्रों में भी सैनिक टुकडियाँ रखी गयी थीं और रणभांडारिक जैसे पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है जो पड़ोसि अधिकारियों के साथ मिलकर सुव्यवस्था स्थापित करते होंगे। जहां तक कर प्रशासन का सवाल है इस विषय में जानकारी कम है। अर्थशास्त्र की तरह गुप्तकाल में आपतकाल व्यवस्था पर कोई विवरण नही है। स्मृति साहित्यों में कहा गया है की राजस्व लेते समय किसानों के पास इतना जरूर बचना चाहिए की वह अपने परिवार की देखभाल कर सके और कृषि को आगे विकसित कर सके। Rule of Gupta period

कर व्यवस्था-
वैसे तो विदेशी इतिहासकारों ने कर की मात्रा 1/4 बताई है लेकिन अन्य युगों की तरह इसका भाग 1/6 था। इसके अलावा भोग कर देना पड़ता था। यह राजा को भोगने के लिए सामग्री के रूप में दिया जाता था। बल्कि इस समय तक अनिवार्य हो गया था। इसके अलावा दो अन्य करों की चर्चा है, जो उदरंग और उपरि कर है। कुछ इतिहाकार इसे सीमांत कर कहते है, यह नगद अदा करना पड़ता था जबकि बन्दरगाहों मे द्रांगिक कर राजस्व वसूलने के निश्चित अधिकारियों का वर्णन नहीं हैं। लेकीन पुष्टकपालन और हिरण्यसाधिक जैसे अधिकारी थे।

न्याय व्यवस्था-
न्याय प्रशासन के क्षेत्र में गुप्तकाल में काफी विकास हो चुका था। राजा को न्याय का प्रमुख माना जाता था, और यह अपनी सहायता के लिए न्यायाधीश नियुक्त करते थे। धर्मशास्त्रों में बताये गये न्यायविधि के आधार पर निर्णय लिया जाता था।

न्यायालयों का कई स्तर भी बताया गया है। दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए अलग न्यायालय थे। बहस्पति और नारद स्मृति मे संपत्ति संबंधी कानून पर महत्व महादंडनायक और दण्डपाथिक जैसे अधिकारियों का वर्णन है। ग्रामीण क्षेत्रों मे मराधिकराणिक नामक अधिकारी थे। शायद इसी से बाद में चौधरी शब्द सामने आता है। गुप्त काल में साम्राज्य को प्रशासनिक इकाइयों में बाँटा गया था। सबसे प्रशासनिक इकाई को पूर्वी भारत में मुक्ति कहा जाता था। जबकि पश्चिम भारत में देश शब्द का प्रयोग है। मुक्ति के अधिकारी जिसे राजा नियुक्त करता था। उसे उपरिक कहा जाता था। उपरिक शब्द में कहीं कहीं भौगिक शब्द भी जोडा गया है। इससे लगता है कि उनके अलग ही राजस्व पर अधिकार को स्वीकार किया गया। प्रांतों को विषय में विभाजित किया गया था। जिसके अधिकारी विषयपति या कुमारामात्य होते थे। इनके कार्यालय को विषयाधिकरण कहा जाता था। मुहरों पर अष्टकुलाधि करण का विवरण है। ऐसा लगता है कि अधिकरण में आठ सदस्य हुआ करते थे। विषयों को बिथि में बांटा गया, बिथि पेठ इसका प्रशासन चलाते थे। इसमें ग्यारह प्रतिनिधि होने का अनुमान है। सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई ग्राम थी। ग्राम अधिपती के लिए महत्तर शब्द का उपयोग है। इसी से महत्तरों की जाति की उत्पत्ती हुयी।Rule of Gupta period

नगर प्रशासन-
गुप्तकाल में नगर प्रशासन के बारे में प्रमाण पाया जाता था। नगर प्रधान को पूरपालक कहा जाता था। और यह नगर सभा के सहयोग से शासन करता था। इसमें चार प्रमुख प्रतिनिधी होते थे जिसमे प्रथम श्रेष्ठी, प्रथम सार्थवाह, प्रथम कल्लिक, प्रथम कायस्थ इस प्रकार थे।

अगर मौर्य प्रशासन से गुप्त की तुलना की जाये तो मौर्य प्रशासन में केन्द्रीय शासन द्वारा सम्पूर्ण क्षेत्र नियंत्रित किया जाता था जबकि गुप्तकाल में न सिर्फ प्रांतीय, बल्कि नगर प्रशासन में भी स्थानीय शक्ति के महत्व को स्वीकार किया गया था। गुप्तकाल में पश्चिम भारत में कुछ स्वतंत्र प्रशासनिक व्यवस्थाओं का भी उल्लेख है। कुछ लोग इसे गणतंत्रों से जोड़ते हैं। लेकीन R. S. Sharma का मानना है कि स्थानीय लोग शक्तिशाली और संपन्न वर्ग के रूप में उभरे थे। और उन्होंने प्रशासनिक व्यवस्था को प्रभावित किया था।

गुप्तकाल की प्रशासनिक व्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है की इसमे सामंती शक्तियों का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सामंत शब्द का प्रयोग पडोसी राज्यवंश के लिए किया गया है जबकि मौर्योत्तर काल में पड़ोस में रहने वाले संपन्न कृषि परिवारों के लिए सामंत शब्द प्रयुक्त है। गुप्तकाल तक पहुँचते सामंत जैसे शब्द का प्रयोग अधीनस्थ राजाओं और अर्धस्वतंत्र भूमिपतियों के लिए किया जाने लगा जो सामंती विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है। Guptkaal Ka Shasan

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