प्राचीन उत्तरी भारत में त्रिकोणीय संघर्ष पर लेख Article on Triangular Conflict in Ancient Northern India
शुरुआत से अंत तक जरूर पढ़ें।
1. प्रस्तावना
प्राचीन भारत के इतिहास में त्रिकोणीय संघर्ष (Tripartite Struggle) वह ऐतिहासिक घटना है, जिसमें पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट—इन तीन शक्तिशाली राजवंशों के बीच उत्तरी भारत, विशेषकर कन्नौज (कान्यकुब्ज) पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए लगभग दो शताब्दियों तक संघर्ष हुआ।
यह संघर्ष मुख्यतः 8वीं से 10वीं शताब्दी ई. के बीच चला। कन्नौज, जो कभी हर्षवर्धन के साम्राज्य की राजधानी थी, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र था।
त्रिकोणीय संघर्ष ने न केवल उत्तरी भारत की राजनीति को प्रभावित किया, बल्कि उत्तर भारत की एकता को कमजोर कर दिया, जिसका लाभ बाद में तुर्क आक्रमणकारियों ने उठाया।
2. त्रिकोणीय संघर्ष की पृष्ठभूमि
2.1 हर्षवर्धन के बाद की स्थिति
- हर्षवर्धन (606–647 ई.) की मृत्यु के बाद उसका साम्राज्य कमजोर हो गया।
- कन्नौज (कान्यकुब्ज) उत्तर भारत का एक समृद्ध और रणनीतिक केंद्र बना रहा।
- कन्नौज पर नियंत्रण का अर्थ था उत्तरी भारत के राजनीतिक वाणिज्यिक मार्गों पर वर्चस्व।
2.2 कन्नौज का महत्व
- कन्नौज गंगा के मैदानी इलाकों के केंद्र में स्थित था।
- यह व्यापारिक मार्गों और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था।
- कन्नौज पर शासन करना उत्तर भारत की राजनीतिक सर्वोच्चता का प्रतीक था।
3. संघर्ष में शामिल तीन प्रमुख शक्तियाँ
त्रिकोणीय संघर्ष में गुरजर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट वंश मुख्य रूप से शामिल थे।
3.1 गुरजर-प्रतिहार वंश
- इस वंश की स्थापना नागभट्ट प्रथम ने 8वीं शताब्दी में की।
- प्रमुख शासक: नागभट्ट द्वितीय, मिहिरभोज, भोज प्रथम।
- प्रतिहारों की शक्ति का केंद्र राजस्थान और मध्य भारत था।
- उनका उद्देश्य कन्नौज पर नियंत्रण स्थापित कर उत्तरी भारत में सर्वोच्च सत्ता बनना था।
3.2 पाल वंश
- पाल वंश की स्थापना गोपाल (750 ई.) ने बंगाल में की।
- प्रमुख शासक: धर्मपाल, देवपाल।
- पालों का केंद्र बंगाल और बिहार था।
- धर्मपाल ने कन्नौज को जीतने और गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्रों पर नियंत्रण पाने के लिए अभियान शुरू किया।
3.3 राष्ट्रकूट वंश
- राष्ट्रकूट वंश की स्थापना दंतिदुर्ग (753 ई.) ने की।
- प्रमुख शासक: ध्रुव, गोविंद तृतीय, अमोघवर्ष।
- राष्ट्रकूटों का केंद्र महाराष्ट्र और दक्कन था।
- उनका उद्देश्य उत्तर भारत के संपन्न व्यापार मार्गों और कन्नौज की समृद्धि पर वर्चस्व स्थापित करना था।
4. त्रिकोणीय संघर्ष की मुख्य घटनाएँ
4.1 धर्मपाल और नागभट्ट द्वितीय का संघर्ष
- पाल शासक धर्मपाल (770–810 ई.) ने कन्नौज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास किया।
- प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय ने इसे चुनौती दी और धर्मपाल को पराजित किया।
- कन्नौज कुछ समय के लिए प्रतिहारों के नियंत्रण में आया।
4.2 राष्ट्रकूटों का हस्तक्षेप
- राष्ट्रकूट शासक ध्रुव (780–793 ई.) ने उत्तर भारत पर आक्रमण कर प्रतिहारों और पालों को हराया।
- ध्रुव ने कन्नौज पर नियंत्रण स्थापित कर अपने साम्राज्य की शक्ति प्रदर्शित की।
4.3 गोविंद तृतीय के अभियान
- ध्रुव के उत्तराधिकारी गोविंद तृतीय (793–814 ई.) ने भी कन्नौज की सत्ता के लिए युद्ध किया।
- उसने प्रतिहारों और पालों को पीछे हटने पर मजबूर किया।
4.4 मिहिरभोज और देवपाल
- प्रतिहार शासक मिहिरभोज (836–885 ई.) ने अपनी शक्ति बढ़ाई और कन्नौज पर पुनः नियंत्रण किया।
- पाल शासक देवपाल (810–850 ई.) ने भी गंगा घाटी पर नियंत्रण की कोशिश की, लेकिन मिहिरभोज ने उसे पराजित कर दिया।
5. त्रिकोणीय संघर्ष का परिणाम
5.1 कोई स्थायी विजेता नहीं
- लगभग 200 वर्षों के संघर्ष के बाद भी कोई भी वंश कन्नौज पर स्थायी नियंत्रण नहीं रख सका।
- कन्नौज का नियंत्रण कभी पालों, कभी प्रतिहारों और कभी राष्ट्रकूटों के हाथों में रहा।
5.2 राजनीतिक अस्थिरता
- उत्तर भारत में स्थायी राजनीतिक एकता का अभाव रहा।
- इस अस्थिरता ने छोटे-छोटे राज्यों के उदय को प्रोत्साहित किया।
5.3 आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव
- लगातार युद्धों ने आर्थिक समृद्धि और व्यापार को प्रभावित किया।
- बावजूद इसके, इस काल में कला, साहित्य और धर्म का विकास होता रहा।
5.4 विदेशी आक्रमण का मार्ग प्रशस्त
- उत्तर भारत की कमजोर राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाकर महम्मद गजनवी और महम्मद गौरी जैसे आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किया।
6. त्रिकोणीय संघर्ष की विशेषताएँ
- यह संघर्ष मुख्यतः कन्नौज की सत्ता को लेकर था।
- इसमें पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट वंशों की प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी।
- इस संघर्ष ने उत्तर भारत के एकीकरण की संभावना को खत्म कर दिया।
- लगभग दो शताब्दियों तक कोई निर्णायक परिणाम नहीं निकला।
7. ऐतिहासिक स्रोत
- इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख (समुद्रगुप्त का) से हमें प्रारंभिक राजनीतिक महत्व का पता चलता है।
- संस्कृत ग्रंथ, ताम्रपत्र, शिलालेख और फारसी यात्रियों के विवरण से त्रिकोणीय संघर्ष की जानकारी मिलती है।
8. निष्कर्ष
त्रिकोणीय संघर्ष भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण राजनीतिक अध्याय है। इस संघर्ष ने यह स्पष्ट कर दिया कि आंतरिक एकता और स्थिरता के बिना बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा संभव नहीं।
हालाँकि कोई एक वंश कन्नौज पर स्थायी अधिकार नहीं कर सका, लेकिन इस संघर्ष ने पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट वंश को भारतीय राजनीति में प्रतिष्ठा दिलाई।
त्रिकोणीय संघर्ष का सबसे बड़ा परिणाम यह था कि इसने उत्तर भारत की शक्ति को कमजोर कर दिया और भारत के मध्यकालीन इतिहास के लिए नई परिस्थितियाँ तैयार कर दीं।