जैन धर्म का इतिहास History of Jainism

जैन धर्म का महत्व Importance of Jainism

 जैन धर्म का इतिहास History of Jainism

जैन धर्म की शिक्षाएं- teachings of jainism

बौद्ध धर्म की तरह महावीर के सिद्धांत में भी दुखवाद का महत्व था। इसके अनुसार संबंधियों के बिछड़ने या किसी चीज के प्राप्त नहीं होने के कारण व्यक्ति दुःख अनुभव करता है। इसी दुख के कारण कर्म का संचय होने लगता है जिसमें मनुष्य जीवन और मृत्यु के चक्र में फंस जाता है। महावीर के अनुसार मनुष्य अगर अपना आचरण ठीक करें तो मोक्ष या निर्वाण प्राप्त कर सकता है। महावीर ने आचरण सुधारने के तीन प्रमुख सिद्धांत बताए हैं।
* सही ज्ञान (सम्यक ज्ञान)
•सही दर्शन (सम्यक दर्शन)
•सही आचरण (सम्यक आचरण)
इनको जैन धर्म में त्रिरत्न कहा जाता है। महावीर ने इसके लिए पांच व्रतों का पालन करने की बात कही है जिसमें पहला हिस्सा है। अहिंसा मनसा वाचा कर्मणा सब तरह की होनी चाहिए। मन वचन कर्म से हिंसा न हो। लेकिन यह अहिंसा का सिद्धांत अव्यवहारिक होता गया और यही कारण है कि बौद्ध धर्म की तुलना में इसका प्रचार कम हो पाया। दूसरा व्रत सत्य है इसमें सही सोचना और सही बोलना सभी मनुष्य के लिए अनिवार्य है। तीसरा अस्तेय है जिसमें दूसरे की संपत्ति का लोभ ना होना, चोरी ना करना। चौथा अपरिग्रह है जिसमें संपत्ति का संचय नहीं करना‌। यह चारों व्रत पार्श्वनाथ के समय से ही चले आ रहे थे। महावीर ने उसमें ब्रह्मचर्य व्रत नया जोड़ा जिसमें निर्वाण के लिए सन्यास लेना आवश्यक बताया गया। महावीर ने पार्श्वनाथ के विचार से अलग हटकर कठिन या कठोर तपस्या करना आवश्यक समझा। इस तरह पार्श्वनाथ के सिद्धांतों में काफी अंतर है।

जैन दार्शनिक विचारधाराओं के अनुसार संसार में दो प्रमुख तत्व हैं पहला जीव और दूसरा अजीव। जीव और अजीव के पारंपरिक संपर्क में कर्म का संचय होता है। इसी कर्म के प्रवेश को अश्रव कहा गया है। अश्व से आत्मा कर्म के बंधन में बंध जाती है और मोक्ष पाने के लिए इस कर्म के बंधन को तोड़ना आवश्यक है। कर्म के इस प्रवेश को रोकने या तोड़ने को निजर कहा गया है। यह तपस्वी जीवन अपनाने पर संभव हो सकता है।

जैन धर्म के अनुसार आत्मा का अस्तित्व होता है। इस तरह जैन दर्शन उपनिषद विचारधारा से मिलता जुलता है लेकिन जहां उपनिषदीए विचारकों के अनुसार आत्मा का ब्रह्म में लीन होना मोक्ष है। वही जैन विचारकों के अनुसार आत्माओं का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। आत्मा कई प्रकार की होती है जिसमें श्रेष्ठ आत्माओं को शुद्ध आत्मा या मुक्त आत्मा कहा गया है। इनके अनुसार आत्मा ज्ञानी है और ज्ञान के कई स्रोत हैं जिसमें श्रुति माति इंद्रियों से अवधि दूसरे क्षेत्र की घटनाओं का ज्ञान आत्मा द्वारा मान: पराय: पराये मन का ज्ञान पांचवा सबसे श्रेष्ठ माना गया है। तथा तीर्थंकरों के लिए संभव है और इसमें भूत भविष्य वर्तमान की जानकारी रहती है इसे कैवलया ज्ञान कहते हैं इसलिए महावीर को केवलीन कहा गया है।

जीव के साथ ही जैन धर्म में अजीव का भी वर्णन है। इसके पांच प्रकार बताए गए हैं। धर्म अधर्म आकाश काल और पुदगल भौतिक सामग्री। इसी से बाकी चीज बनेगी पुदगल से ही संसार की शुरुआत होती है। जैन दार्शनिक के अनुसार ज्ञान की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है।

समय और परिपेक्ष के अनुसार ज्ञान में परिवर्तन हो सकता है। जो आज सत्य है वह कल बदल जाए या अपना महत्व खो दे। इसी सिद्धांत पर स्यादवाद आधारित है। इसका मतलब है भी नहीं भी है कहां नहीं जा सकता नहीं जानते हैं कह नहीं सकते जानते हैं कह नहीं सकते जानते हैं नहीं भी जानते हैं कह नहीं सकते इस तरह इसके सात अंग है इसे सप्ताय सिद्धांत कहते हैं।History of Jainism

जैनियों के अनुसार पृथ्वी की रचना में देवी शक्तियों का कोई विशेष महत्व नहीं। बौद्ध धर्म की तरह ही इन्होंने भी संसार की रचना को प्राकृतिक नियमों पर आधारित माना है। संसार के इतिहास को दो भागों युगों में विभाजित किया है जिसमें उत्सपण-इस युग में सभी मनुष्य सुख का अनुभव करते हैं और दूसरा युग अपसपणी कहां गया है जिसमें संसार पतन की ओर बढ़ने लगता है।

जैन धर्म को अनिश्वरवादी धर्म कहा जा सकता है। लेकिन बौद्ध के विपरीत जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है‌। जैन ग्रंथों में ब्रांह्मण देवता जैसे गुदरा ब्रह्मा का उल्लेख है। लेकिन इन्हें अद्रदेव वा तीर्थंकरों के अधीन माना गया है।

अन्य सिद्धांतों की तरह जैनियों ने भी पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार किया था और व्यक्ति का जन्म तब तक होते रहता है जब तक वह कर्मों से मुक्ति ना प्राप्त कर ले इस मुक्ति को निवाण कहा गया है। बौद्ध धर्म के निवाण से अंतर यह है की बौद्ध के अनुसार निवार्ण व स्थित है जिसमें मनुष्य केवल सुख का अनुभव करता है। बौद्ध धर्म में निवाण से मृत्यु को नहीं जोड़ा गया है क्योंकि इसी जन्म में इच्छाओं का दमन कर निवाण प्राप्त किया जा सकता है। जबकि जैन धर्म में निवाण की अवस्था मृत्यु के बाद ही संभव है। इसके लिए 11 सिद्धांत प्रतिमाएं हैं। और अंत में संलेखन के द्वारा शरीर का त्याग कर दिया जाता है। संलेखन आत्महत्या नहीं है बल्कि ज्ञानी पुरुषों द्वारा कर्म का त्याग है। जैन धर्म में आत्महत्या को कायरतापूर्ण कार्य बता कर इसकी निंदा की गई है। History of Jainism

जैनसाहित्य- Jain literature
जैन धर्म में सबसे पहले 14 पुरवों पूर्वों की रचना महावीर के काल में ही की गई। लगभग 300 BC में 12 अंगों की रचना 14 पूरवों के आधार पर की गई। यह कार्य के द्वारा पाटलिपुत्र में सभा बुलाकर किया गया था लेकिन इसे केवल श्वेतांबर की स्वीकृति प्राप्त थी इसमें महत्वपूर्ण आचरांग सूत्र वा भगवती सूत्र है। पहली शताब्दी में इस पर टिकाएं लिखी गई। जिससे निरूकती कहा गया 1512 ई में गुजरात के वल्लभी मैं क्षमाश्रवण देवारधिमाणी की अध्यक्षता में 12 अंगों की पुनः रचना की गई लेकिन इस अंग इस समय तक भूल चुका था 11 अंग ही बच पाए।

जैन धर्म के आचार एवं नियम छेदसूत्र में लिखे गये है जबकि मूलसूत्र मे शिक्षाओं का वर्णन है। भगवतीसूत्र में सोलह महाजनपदों के अलावा विभिन्न ऋषियों की गाथाएँ है। 12 वीं शताब्दी का हेमचन्द्र द्वारा रचित परिशिष्ट पार्दन महत्वपूर्ण जैन ग्रंथ है। भद्रबाहू द्वारा लिखा गया कल्पसूत्र जिसमें थेरों की कथाएँ व शिक्षाएँ सम्मिलित है। History of Jainism

माधवीर की मृत्यु के बाद केवल एक गणाधार बच गया था महावीर ने संघ को 11 गणाधारों में बाँटा था लेकीन दस गणाधारों की मृत्यु हो चुकी थी। 11 वें गणाधार सुधर्मण संघ के नये अध्यक्ष बने। सुधर्मण ने धर्म की सही जानकारी सम्भुत विजय को दी थी और सम्भूत विजय ने भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ दाक्षिण चले गये जब मगध में भीषण अकाल पड़ा हुआ था। 12 वर्ष अकाल दक्षिणुप्त ने कर्नाटक के श्रवणबेलगोल में एक बौद्ध भिक्षु की तरह जीवन को पारगान किया जो चन्द्रगिरी पहाड़ियों में है। जब भद्रबाहु लोटे तो उन्होंने स्थिरभद्र को यह शिष्य धर्म में परिवर्तन स्विकारते हुए देखा और इस परिवर्तन को अस्विकार कर दिया। वस्तुतः यह परिवर्तन श्वेतवस्त्र धारण करने से था। जैन सम्प्रदाय इससे दो भागों में बँट गया एक श्वेताम्बर व दुसरे दिगम्बर। पहली शताब्दी तक आते जैन धर्म में मूर्तीपूजा शुरु हो गयी। चौथी शताब्दी में श्वेताम्बरों का एक नया वर्ग आया जो केवल ग्रंथों की पूजा करते थे और इसे तेरपंथी कहा गया।

कहा जाता है की, उदयन, अजातशत्रू का बेटा, जैन धर्म का समर्थक था। अशोक का पौत्र संप्रति ने जैन धर्म को स्वीकार किया था। कलिंग नरेश खारवेल ने भी जैन धर्म को स्वीकार किया और पहली शताब्दी में उड़ीसा में जैन धर्म का काफी प्रचार हुआ। खंडकिरीह में एक जैन सभा भी बुलाई गयी। उदयगिरी में मिले हाथीगुफा अभिलेख में जैनियों की एक शाखा विद्याधारी का उल्लेख है। प्रथम शताब्दी में मथुरा प्रसिद्ध जैन केन्द्र था। वहाँ से जैन तीर्थकरों की मूर्तीयाँ मिली है। दूसरी तीसरी शताब्दी तक राजस्थान और गुजरात श्वेताम्बर जैन के प्रमुख केन्द्र बन गये। पूर्व मध्यकालीन युग में कई एक राजवंश जैसे चालुक्य / राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष जैन धर्म मानता था और कविराज मार्ग इससे सम्बन्धित प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसी समय राष्ट्रकूटों के यहाँ जीनसेन और गुणभद्र ने महापुराण की रचना की। सोमदेव सुरी ने नितिवाक्य अमृत की रचना की जो कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर आधारित है।

जैन धर्म का कला पर भी प्रभाव पड़ा। मौर्ययुग में पटना के लोहनीपुर नामक जगह से तीर्थंकर की मूर्ति मिली है। कलिंग उडीसा के उदयगिरी पहाड़ियों मे जैन मंदिरों का साक्ष्य है। 200 bc के लगभग मथुरा में महावीर की सबसे सुंदर मूर्ति श्रवणबेलगोला से मिली है। इसे गोमतेश्वर की मूर्ती कहते हैं। इसका निर्माण गंग राज वंश के मंत्री चामुण्डराय ने 180 AD में कराया था। जैन गुफाओं का साक्ष्य ऐलोरा से प्राप्त किया गया है। चालुक्यों के काल में राजधानी बादामी और ऐडोल से भी जैन गुफाओं में बौद्ध के साथ जैन धर्म के चित्रकारी के साक्ष्य हैं। राजस्थान के जोधपूर के निकट रणकपूर से जैन मंदिरों के साक्ष्य मिले हैं। History of Jainism

चित्तोड के विजयस्तम्भ का निर्माण भी जैन स्तम्भ से प्रभावित दिखता है। गुजरात के क्षेत्र में ताड़ के पत्तों पर जैन धर्म से संबंन्धित मिनिऐचर छोटे चित्र बनाये गये जो बाद में चित्रकला का आधार बना।

जैन पन्थ के प्रवर्तक ऋषभ देव, अरिष्टनेमी और अजितनाय अति प्राचीन जैन तीर्थंकर थे। इनका अत्यन्त सम्मान पूर्ण, दार्शनिकों के रूप में ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, गोपथ ब्राह्मण, श्रीमद् भागवत और भागवत पुराण में वर्णन मिलता था तथा ऋषभदेव को विष्णु का अवतार माना जाता था। इसके अतिरिक्त यजुर्वेद में इन्हें धर्म प्रवर्तकों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इस प्रकार जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन और वैदिक दर्शन से युक्त आन्दोलन था। इसी परम्परा में महावीर तक चौबीस तीर्थकर हुये। इनमें चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर महावीर के काल में अनेक विकृत्तियाँ भारतीय समाज में व्याप्त हो चुकी थीं अतः महावीर ने अत्यन्त तेजस्वी वाणी में उनका खण्डन करके प्राचीन ऋषियों के विचारों, वैदिक दर्शन की स्थापना पर जोर दिया। इस प्रकार जैन पन्थ एक आध्यात्मिक और धार्मिक क्रांति का युग निर्माता धर्म बन गया।

जैन पंथ सुधारवादी और वैदिक परम्परा की शाखा-Jainism is a branch of reformist and Vedic tradition
जैन पन्थ प्राचीन काल में भी सामाजिक, धार्मिक विकृत्तियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ था। जैन धर्म के सत्य, अहिंसा, इन्द्रिय दमन, सत्कर्म, पुनर्जन्म, तपस्या, सदाचार आदि उपनिषदों के ही सिद्धान्त हैं। जैन भिक्षु एवं साध्वियों की नैतिकता, चरित्र, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, संन्यास, दिनचर्या आदि सभी ब्राह्मण धर्म से ही लिये गये हैं अथवा ब्राह्मण धर्म को आधार बनाया गया है। मेक्समूलर, जेकोबी और बार्थ ने माना है कि जैन पन्थ ने ब्राह्मण धर्म (वैदिक धर्म) की अच्छाइयों को लेकर उसके विकास को चरम सीमा तक पहुँचा दिया। यही कारण है कि बार्थ के अनुसार जैन और बौद्ध धर्म हिन्दूधर्म (आर्य धर्म) का सुन्दर प्रतिबिम्ब था। अतः यह प्राचीन वैदिक या हिन्दुत्व का न विरोधी था न विद्रोही था बल्कि यह वैदिक, उपनिषदीय या उत्तरवैदिक कालीन सुधारवादी परिवर्तन का क्रांतिकारी आन्दोलन था। History of Jainism

जैन पन्थ की विशेषतायें, सिद्धान्त और आदर्श-Characteristics, principles and ideals of Jainism
वर्धमान महावीर ने जैन पन्थ के सिद्धान्तों और विचारों का प्रचार-प्रसार किया। परन्तु अपने समय की मांग को भी उन्होंने उपेक्षित नहीं किया।

बल्कि गंभीरता से उस पर विचार कर निम्न विचारों को प्रमुखता दी-

(1) निवृत्तिवाद-उस काल में मानव जीवन भौतिकवाद में उलझकर दुःखी था। तृष्णाओं, कामनाओं एवं वासना प्रवृत्ति के कारण समाज में परस्पर प्रवृत्ति, अपराध, दुख और असंतोष व्याप्त थे। अतः महावीर ने इच्छाओं के त्याग और सांसारिक बन्धनों से मुक्ति और जानता के सम्मुख रखा। अतः उन्होंने संयम, त्याग, तप और केवल्य ज्ञान का प्रचार किया। अतः समय के अनुरूप उन्होंने निवृत्तिवाद का प्रचार किया।

(2) व्यक्ति की स्वतंत्रता- जैन पन्थ में कर्म और जीवन को बन्धन माना जाता है। परन्तु इन दोनों के लिये व्यक्ति व्यक्तिगत रूप में उत्तरदायी माना गया। वह स्वयं ही इनसे मुक्त होने के लिये प्रयत्न कर सकता है। इसमें पुरोहित या बाह्य व्यक्ति कोई मदद नहीं कर सकता है अतः उसे स्वयं को अणुव्रतों का पालन करना चाहिये, सदाचार का जीवन अपनाना चाहिये। इस प्रकार वह निग्रन्थ (बन्धनहीन) हो सकता है। इसमें स्त्री-पुरुष का भी भेद महावीर ने नहीं माना तथा उन्हें भी जैन पन्थ में दीक्षित होने की और आत्मकल्याण तथा निर्वाण प्राप्त करने की स्वतंत्रता दी।

(3) अनेकान्तवास- सृष्टि में मनुष्य, पशु और वनस्पति में आत्मा होती है। परन्तु उनके स्वभाव, रंग-रूप, रस-गन्ध, आकार-प्रकार आदि भिन्न-भिन्न होते हैं। उपनिषद आत्मा को तटस्थ और किसी बाह्य तत्व या पदार्थ से निष्प्रभावी मानते हैं। परन्तु जैन पन्थ का विश्वास है कि आत्मा न तो चिरन्तन है और न अपरिवर्तनशील है। अस्तित्व कारक पदार्थ ही स्थाई होता है परन्तु उसमें गुण-दोष उत्पन्न होते हैं और नष्ट भी होते हैं तथा वह विभिन्न रंग-रूप, रस-गन्ध, आकार-प्रकार और स्वरूप धारण करते हैं। आत्मायें इस पदार्थ से भिन्न होती है और जिस शरीर में रहती हैं उसके पदार्थ रूप गुण-दोषों, आकार-प्रकार, रंग-रूप, रस- गन्ध और स्वरूपों को सक्रियता या चेतनता प्रदान करती हैं। इसी कारण विभिन्न स्वरूप और स्वभाव होते हैं। इस प्रकार आत्मा तब तक रहती है जब तक कि वह विभिन्न प्राणियों के शरीर में मूर्त रहती है और पुनर्जन्म और कर्म के आधीन रहती है। चेतनता और विभिन्न शरीरों तथा पदार्थों में निवास उसके प्रमुख लक्षण हैं।

(4) स्यादवाद- जैन पन्थ में सत्य को देखने, समझने के विभिन्न दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न होते हैं। सत्य के अनेक और विभिन्न पहलू होते हैं। मनुष्य अपनी स्वयं की परिस्थिति, ज्ञान और अनुभव से (जो सीमित होता है) सत्य का आंशिक ज्ञान ही प्राप्त कर पाता है। उसके अनुसार ही वह वर्णन करता है। फिर भी सत्य के सम्बन्ध में प्रश्न उत्पन्न होते रहते हैं। जैन पन्थ में ज्ञान की भिन्नता के सात प्रकार हैं- (1) है (2) नहीं है (3) है और नहीं है (4) कहा नहीं जा सकता (5) है किन्तु कहा नहीं जा सकता है (6) नहीं है परन्तु कहा नहीं जा सकता है (7) है नहीं और कहा जा सकता है।
जैसे- वृक्ष हिलता-डुलता है, यह कहा जा सकता है क्योंकि उसकी पत्तियां, शाखायें, पुष्प आदि हिलते हैं। परन्तु यह भी कहा जा सकता है कि वृक्ष नहीं हिलता-डुलता है, क्योंकि वह अपना स्थान नहीं छोड़ता।

(5) अनीश्वरवाद – जैन पन्थ ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता और न उसे सृष्टिकर्ता ही मानता है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने इसे अनीश्वरवादी कहा है। जैन पन्थय के अनुसार सृष्टि अनादि और अनन्त है, निरन्तर है।

(6) दैतवादी ज्ञान – जैन पन्थ के अनुसार प्रकृति और आत्मा इस सृष्टि में दो ही तत्व हैं
अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जीव का मूर्तरूप या व्यक्तित्व भौतिक तथा आध्यात्मिक दो अंशों से बना है। भौतिक अंश जीव को दोषों या बुराइयों की ओर ले जाता है तथा आध्यात्मिक अंश निर्वाण या मोक्ष की ओर ले जाता है। भौतिक अंश नाशवान है जबकि आध्यात्मिक तत्व अनन्त और विकासशील है। निर्वाण प्राप्ति के साथ भौतिक अंश नष्ट हो जाता है और आत्मिक या आध्यात्मिक तत्व चिरशास्वत होकर उच्चावस्था तक पहुँचता है जिससे जीव बन्धन मुक्त हो जाता है।

(7) आत्मवाद- महावीर आत्मवादी थे तथा उसकी अमरता में विश्वास करते थे। उनके अनुसार आत्मा या जीव मानव, पशु-पक्षियों, वनस्पति तथा पत्थर आदि में होता है। कोई भी पदार्थ बिना आत्मा के सम्भव नहीं है। जैन पन्थ के अनुसार छः जीव श्रेणियाँ हैं-
(1) पृथ्वी
(2) जल
(3) तेज
(4) वायु
(5) वनस्पति और त्रस।

(8) कर्म और पुनर्जन्म-इस विश्व में सांसारिक जीव विषय, वासना और तृष्णा से प्रेरित होकर कर्म करता है। किन्तु इनकी जितनी पूर्ति होती है उतनी ही यह अधिक बढ़ जाती है। इस कारण अज्ञानवश जीव या मनुष्य उसमें फँस जाता है और उसकी आत्मा बंध जाती है। सामान्यतः जीव आठ प्रकार के कर्म करता है-
(1) ज्ञानवर्णीय कर्म अर्थात् आत्मा के ज्ञान को भुलाने वाले कर्म।
(2) दर्शनावरणीय कर्म अर्थात् सम्यक् दर्शन में बाधक कर्म।
(3) वेदनीयकर्म अर्थात् सुखः दुःख के सम्यक् ज्ञान को रोकने वाले कर्म।
(4) आयुकर्म मनुष्य की उम्र को कम करने कर्म।
(5) नामकर्म- मनुष्य की परिस्थिति, शरीर आदि को रोकने वाले कर्म।
(6) मोहनीय कर्म- आत्मा को मोहमाया में फंसाने वाले कर्म।
(7) गोत्र-कर्म मानव गोत्र, ऊँच-नीच आदि उत्पन्न करने वाले कर्म।
(8) अन्तराय कर्म- सद्कर्म को रोकने वाले कर्म।

उपरोक्त कर्म आत्मा को बन्धन में रखते हैं इसके अतिरिक्त पूर्वजन्म के कर्म भी उसे बांधे रहते हैं। इसी कारण आत्मा विभिन्न योनियों में आवागमन करती रहती है। अतः कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है। अतः उपरोक्त कर्मों का मनुष्य को ज्ञान हो जाये तो वह अपनी आत्मा को कर्म के बन्धन से मुक्त करने का प्रयत्न कर सकता है।

(9) निर्वाण – जैन विचार के अनुसार यदि कोई मनुष्य किसी प्रकार के कर्म फल को संचित नहीं करता और सद्कर्मों से पूर्वजन्म के कर्म फलों का नाश कर देता है। यही जीव की मुक्ति है। तप, साधना, शरीर यातना से और अनुशासन से नवीन कर्मों के फलों का निर्माण नहीं होता और पूर्व जन्म के संचित कर्म फल धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार कर्मफलों के विनाश या मानव के भौतिक अंश से मनुष्य मुक्त हो जाता है। इसी को जैन विचारों में निर्वाण कहा जाता है।

(10) त्रिरत्न- महावीर ने (1) सम्यक् ज्ञान (2) सम्यक् दर्शन (3) सम्यक् चरित्र यह तीन रत्नों का पालन करने का निर्देश दिया है। इनमें प्रत्येक में सम्यक् शब्द महत्वपूर्ण है जिसका अर्थ विवेक से। तीनों तत्व अच्छे-बुरे होते हैं परन्तु उनका ग्रहण विवेक के अनुसार ही होना चाहिये। यह तीनों गम्भीर अध्ययण, पूर्णज्ञान, इन्द्रिय निग्रह, कर्म नियन्त्रण, भेदा- भेद दृष्टि और अनासक्ति से प्राप्त किये जा सकते हैं।

(11) अणुव्रत और नैतिक जीवन- जैन पन्थ में गम्भीर अध्ययन, कठोर तप और सम्पूर्ण त्याग या संन्यास को आवश्यक बताया है परन्तु सामान्य नागरिक इन सबका पालन नहीं कर सकता। अतः उनके नैतिक और सुखमय जीवन के लिये पाँच अणुव्रतों के पालन का संदेश दिया है- (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) अपरिग्रह (5) ब्रह्मचर्य। इन व्रतों के पालन से मनुष्य चरित्र-सम्पन्न और सङ्कर्मी बन सकता है। उन्होंने जैन भिक्षु भिक्षुणियों के लिये यह आवश्यक कर दिया था कि वे इनका बहुत कठोरता से पालन करें। जैसे स्त्रियों के
संसर्ग से मनुष्य को दूर रहना चाहिये। इनके अतिरिक्त व्रत, उपवास और तपस्या, विनय, सेवा, स्वाध्याय, ध्यान और शरीर त्याग को भी आवश्यक बताया।महावीर ने कर्मकाण्डों को व्यर्थ बताकर उपरोक्त तरीकों से मानव जीवन को नैतिक बनाने का और विषय-वासनाओं से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करने का संदेश दिया। जिससे व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व का जीवन भी नैतिक और सुखमय बन सकेगा।

(12) तीर्थकरों में आस्था- जैन धर्म के महापुरुष तीर्थंकर कहलाते थे। जैन पन्थ ईश्वर में विश्वास नहीं करता था अतः उसमें आस्था का भी प्रश्न नहीं था। परन्तु तीर्थंकर मनुष्यों को नैतिकता, ज्ञान, दर्शन, साधन, चरित्र, संयम, सत्य, अहिंसा आदि के द्वारा मोक्ष और निर्वाण का मार्ग बताते थे तथा व्यक्ति और समाज के जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करते थे। अतः महावीर ने तीर्थंकरों में आस्था और विश्वास करने को कहा।

(13) जैन पन्थ की भारत को देन-जैन पंथ के 24 तीर्थंकरों तथा अन्य जैन ऋषियों ने तत्कालीन और भावी भारत की राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, कला, शिक्षा, साहित्य दर्शन और विज्ञान को प्रभावित किया तथा सम्पूर्ण भारत में जैन पन्थ के अनुयायी आज भी उनके बताये मार्ग पर चल रहे हैं। संक्षेप में उनकी प्रमुख देनों पर प्रकाश डाला जा रहा है- History of Jainism

साहित्य और शिक्षा-literature and education

तीर्थंकरों के उपदेश और सिद्धान्तों को प्रमुख ग्रन्थों में संकलित किया गया। इन ग्रन्थों को प्राकृत, कन्नड़, तमिल, तेलुगू और संस्कृत में लिखा गया। इससे इन भाषाओं का विकास हुआ। इसके साथ इनके व्याकरण, शैली, काव्य, छन्द, कथायें, गाथायें, गणित, योग आदि पर भी साहित्य-सृजन हुआ। गुजरात में हेमचन्द्र सूरी ने प्रसिद्ध जैन ग्रन्थों की रचना की।

दर्शन-Visit

जैन ऋषियों ने नवीन दर्शनशास्त्रों को प्रस्तुत किया। इनमें स्यादवाद,अनेकान्तवाद तथा निवृत्तिवाद आदि प्रमुख हैं। इनकी व्याख्या तथा आधार पौराणिक व्याख्याओं से भिन्न हैं तथा ईश्वर के अस्तित्व में अविश्वास के कारण सृष्टि की उत्पत्ति और विकास में विज्ञान तत्व की व्याख्या की। इस प्रकार दर्शनशास्त्रों की रचना की।

कलायें-arts

अनेक कलाकारों ने तीर्थंकरों की मूर्तियों और चित्रों का निर्माण किया। इनमें जैन-शैली और दर्शन के अनुसार भवन निर्माण हुये। इनको आज भी उड़ीसा की हाथी गुम्फा, स्तूपों, अलंकृत प्रवेश द्वारों में देखा जा सकता है। पार्श्वनाथ पर्वत, पावापुरी, राजग्रह, सौराष्ट्र, गिरनार, राजस्थान, आबू, मध्यभारत, बड़वानी, जोधपुर, बुन्देलखण्ड में खजुराहो, एलोरा, ग्वालियर में अनेक विशाल जैन मूर्तियां, कथा चित्र, उपदेश मुद्रा में महावीर, उत्कीर्ण मूर्तियां सजावटी स्तम्भ आदि मिलते हैं।

निष्कर्ष -conclusion

जैन पन्थ वैदिक और उत्तरवैदिक समाज, धर्म और नैतिकता का अभिनव पन्थ था, जिसने समाज में व्याप्त धर्माडम्बर, हिंसा, पशुवध, यज्ञवाद, ईश्वरवाद, वेदों की प्रामाणिकता का खण्डन करके सहिष्णु, समाज को जोड़ने वाला तथा नैतिकता और सुख का संचार करने का प्रयत्न किया। इसके महान् सन्तों के आदर्श सिद्धान्त, व्यवहार, दर्शन आदि तो भारत के लिये गौरवशाली देन हैं। जिन्होंने विभिन्न साहित्य, परम्परायें और कलाओं को भी प्रभावित किया तथा भारत में भौतिकवाद पर अंकुश लगाया तथा मोक्ष का मार्ग दिखाया।

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