आर्यभट्ट कौन था? Who was Aryabhatta?
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1. प्रस्तावना
आर्यभट्ट (लगभग 476 ई.) प्राचीन भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण गणितज्ञ और खगोलशास्त्रियों में से एक थे। उन्होंने कम उम्र में ही ऐसी पुस्तकें लिखीं जिनका प्रभाव न केवल भारत, बल्कि इस्लामी दुनिया और फिर यूरोप तक पहुँचा। उनकी प्रमुख कृति ‘आर्यभटीय’ (Ariyabhatiya) ने गणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति, संख्या पद्धति, खगोल गणना, ग्रहण सिद्धांत और कालगणना—इन सबको अत्यंत संक्षेप, सूत्रात्मक और काव्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया। आर्यभट्ट ने यह भी स्पष्ट कहा कि धरती अपनी धुरी पर घूमती है, और ग्रहण चंद्र-धरती और धरती-चंद्र की छाया पड़ने से होते हैं, न कि पौराणिक ‘राहु-केतु’ के निगलने से। यह विचार अपने समय के लिए अत्यंत आधुनिक था।
2. जन्म, क्षेत्र और जीवन-परिचय
- परंपरागत रूप से आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी माना जाता है।
- वे स्वयं को “कुसुमपुर” (Kusumapura) का निवासी बताते हैं, जिसे अधिकांश विद्वान पटना (प्राचीन पाटलिपुत्र) से जोड़ते हैं।
- अनेक शोधों के अनुसार वे संभवतः अश्मक नामक क्षेत्र से आए थे (कुछ विद्वान इसे दक्षिण भारत, तो कुछ मध्य भारत के किसी भाग से जोड़ते हैं), और बाद में कुसुमपुर/पाटलिपुत्र में रहे, जहाँ उस समय शिक्षा और खगोलशास्त्र का बड़ा केंद्र था।
- उनके शिष्यों में भास्कर प्रथम (Bhaskara I) प्रमुख हैं, जिन्होंने आर्यभटीय पर सुप्रसिद्ध भाष्य लिखा।
- उनकी दूसरी कृति ‘आर्य-सिद्धान्त’ (Arya-siddhanta) अब पूर्ण रूप से उपलब्ध नहीं है; इसके कुछ अंश बाद के लेखकों के उद्धरणों में मिलते हैं।
- आर्यभट्ट ने अपनी गणनाओं में ‘कलीयुग’ की आरंभ-तिथि (3102 ई.पू.) को आधार माना और अनेक खगोलीय चक्रों का हिसाब इस सन्दर्भ-काल से जोड़ा।
3. प्रमुख कृतियाँ
(क) आर्यभटीय (Ariyabhatiya)
यह उनकी सबसे प्रसिद्ध और पूर्णतः उपलब्ध कृति है। यह अत्यंत संक्षिप्त—लगभग 121 श्लोक—की रचना है और चार भागों में विभाजित है:
- गीतिका-पाद (Gītikā-pāda): इसमें महायुग, युगों की लंबाई, तिथियाँ, नाड़ी, मुहूर्त इत्यादि की परिभाषाएँ और बड़े-बड़े संख्यात्मक चक्र दिए हैं।
- गणित-पाद (Gaṇita-pāda): मूलभूत गणित, अंकगणित, बीजगणित, भिन्न, क्षेत्रफल, घन, घनमूल, वर्ग, वर्गमूल, अनिश्चित समीकरण (Diophantine equations) के कुट्टक (Kuṭṭaka) पद्धति आदि का विवेचन।
- कल्प-कुल्य-दश-पाद को कुछ संस्करणों में अलग तरह नामित किया जाता है; सामान्यतः तीसरा भाग काल-क्रिया-पाद (Kālakariyā-pāda) माना जाता है, जिसमें कालगणना, ग्रहों की गति के लिए आवश्यक समय-मान, त्रिकोणमितीय सारणियों के उपयोग हेतु समय-निर्धारण जैसी बातें आती हैं।
- गोल-पाद (Golapāda): खगोलीय गोले (celestial sphere), ग्रहण सिद्धान्त, त्रिकोणमिति (ज्या/कोटिज्या), दिगंश, उन्नति, परावर्तन, प्रकाश आदि के सिद्धान्त; पृथ्वी के घूर्णन का विचार यहीं स्पष्ट रूप से प्रतिपादित है।
नोट: आर्यभटीय अत्यंत सूत्रात्मक है—मतलब श्लोक छोटे-छोटे हैं, जिनमें बहुत संक्षेप में नियम दिए गए हैं, इसलिए उन पर बाद के विद्वानों ने विस्तार से भाष्य किए, ताकि सामान्य छात्र-विद्यार्थी उन्हें समझ सकें।
(ख) आर्य-सिद्धान्त (Arya-siddhanta)
यह उनके खगोलीय सिद्धान्तों का व्यावहारिक पक्ष बताने वाली रचना मानी जाती है—जैसे उपकरण निर्माण, प्रेक्षण की विधियाँ, ग्रह-स्थितियों की गणना के प्रत्यक्ष तरीके इत्यादि। अब यह उपलब्ध नहीं है, परंतु वराहमिहिर, भूस्कर, ब्रह्मगुप्त आदि ने इसके अंशों का उल्लेख किया है, जिससे इसकी प्रकृति का कुछ अनुमान मिलता है।
4. आर्यभट्ट की गणितीय देन
4.1 दशमलव स्थान-मूल्य पद्धति (Place Value System)
भारत में दशमलव स्थान-मूल्य पद्धति पहले से चलन में थी, पर आर्यभट्ट ने इसे व्यवस्थित रूप से गणना में अपनाया। वे संख्याओं को अक्षरों से भी व्यक्त करते हैं (कैटेगोरिकल-कोडिंग), जिससे बड़ी संख्याएँ भी कम शब्दों में आ जाती हैं।
- शून्य के बारे में: आर्यभट्ट के ग्रंथ में आधुनिक अर्थ का प्रतीक रूप में 0 का चिह्न नहीं मिलता, परंतु स्थान-मूल्य पद्धति में ‘शून्य’ के भाव का उपयोग उनके समय में व्यावहारिक रूप से था। आगे चलकर ब्रह्मगुप्त (598–668 ई.) ने शून्य को संख्या के रूप में परिभाषित करके उसके साथ गणितीय क्रियाओं के नियम स्पष्ट किए। इसलिए, यह कहना अधिक सटीक है कि आर्यभट्ट स्थान-मूल्य और ‘ख’ (kha) रूपी placeholder का उपयोग करते हैं, जबकि शून्य के बीजीय नियमों का पक्का विधान बाद में ब्रह्मगुप्त देते हैं।
4.2 π (पाई) का मान
आर्यभट्ट ने π (पाई) का मान 3.1416 (लगभग) तक सही बताया, और यह बताया कि यह मान अपरिमेय (irrational) है—अर्थात इसे भिन्न के रूप में सटीक रूप से नहीं लिखा जा सकता।
- उन्होंने लिखा: “आर्यभट्ट ने 62,832 को 20,000 से भाग देकर वृत्त की परिधि पर व्यास का अनुपात निकाला”, जिससे π ≈ 3.1416 निकलता है।
- “π अपरिमेय है” जैसी स्पष्ट आधुनिक भाषा तो नहीं, पर उन्होंने कहा कि “यह मान आसन्न (approximate) है” — जो इसी ओर संकेत करता है कि उन्होंने इसकी असंख्य दशमलव प्रकृति का भाव समझा।
4.3 त्रिकोणमिति (Trigonometry)
- आर्यभट्ट ने ज्या (sine) तथा कोटिज्या (cosine) की सरणियाँ दीं।
- उन्होंने ज्या (sin θ) की अवधारणा को सुस्थापित किया, जिसे आगे चलकर इस्लामी और यूरोपीय विद्वानों ने साइन (sine) में रूपांतरित किया।
- 0° से 90° तक के कोणों के लिए ज्या-मूल्य एक तालिका के रूप में दिए गए हैं।
- उन्होंने ज्या-व्युत्पत्ति (difference methods) के सिद्धान्तों का उपयोग किया—जो कि आधुनिक finite differences जैसी पद्धतियों का प्रारंभिक रूप माना जा सकता है।
4.4 बीजगणित, कुट्टक (Kuṭṭaka) और अनिश्चित समीकरण
- कुट्टक (अर्थात “कूटना/घिसना” विधि)—यह ऐसी पद्धति है जिससे ax + by = c जैसे अनिश्चित (Diophantine) रैखिक समीकरण हल किए जाते हैं।
- आर्यभट्ट ने इसे व्यवस्थित तरीके से बताया; बाद में भास्कर I और ब्रह्मगुप्त आदि ने इसे और आगे बढ़ाया।
- उन्होंने वर्ग (square), घन (cube), वर्गमूल, घनमूल निकालने के नियम दिए।
- श्रृंखलाएँ (progressions), विशेषकर अंकगणितीय प्रगति (AP), के संबंध में भी सूत्र दिए गए।
4.5 क्षेत्रफल, आयतन और व्यावहारिक गणित
- वृत्त, त्रिभुज, चतुर्भुज आदि के क्षेत्रफल के नियम दिए।
- घन, गोला आदि के आयतन के बारे में भी विवरण मिलता है (हालाँकि आरंभिक रूप में)।
- छाया-गणना (shadow calculations), यानि किसी दिन, किसी अक्षांश पर दोपहर की छाया की लंबाई से सूर्य की ऊँचाई निकालना, ऐसे रूपों का परिचय दिया।
5. आर्यभट्ट का खगोलशास्त्र
5.1 पृथ्वी का घूर्णन
आर्यभट्ट ने स्पष्ट कहा कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। उन्होंने एक सुंदर उपमा दी—जैसे नाव पर बैठे व्यक्ति को किनारा चलते हुए प्रतीत होता है, वैसे ही वास्तव में अस्थिर (non-stationary) पृथ्वी पर खड़े व्यक्ति को आकाश घूमता हुआ दिखता है, जबकि वास्तविक घूर्णन पृथ्वी का है। यह विचार कोपरनिकस से लगभग 1000 वर्ष पहले का है, हालाँकि ध्यान रहे कि आर्यभट्ट ने पूर्ण heliocentric (सूर्यकेंद्रित) मॉडल नहीं प्रस्तावित किया; उनका मॉडल मुख्यतः geocentric रहा, पर उन्होंने पृथ्वी के daily rotation (दैनिक घूर्णन) को स्वीकार किया—जो अत्यंत क्रांतिकारी था।
5.2 ग्रहण सिद्धान्त
- आर्यभट्ट ने सूर्य और चंद्र ग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताया—चंद्र ग्रहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में आता है, और सूर्य ग्रहण तब जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के बीच आकर सूर्य की किरणों को ढक लेता है।
- उन्होंने कहा कि पौराणिक ‘राहु-केतु’ ग्रहण के वैज्ञानिक कारण नहीं हैं; यह उनके समय की धार्मिक-लोकमान्यताओं से स्पष्ट मतभेद दर्शाता है—जो उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रखरता को दिखाता है।
- उन्होंने ग्रहण की परिमाण (magnitude), अवधि (duration) और संपर्क-समय निकालने के व्यावहारिक नियम भी दिए।
5.3 अवधि और स्थिरांक
- आर्यभट्ट ने नाक्षत्र (sidereal) दिन, नाक्षत्र वर्ष, सौर वर्ष, चन्द्र-मास, आदि की अवधारणाओं को परिभाषित करके इनके मान दिए।
- उनके दिए हुए मान उस समय के लिए अत्यंत सटीक थे, और बाद के सदियों में भी खगोलविदों द्वारा उपयोग में आए।
- उदाहरणतः, उन्होंने वर्ष (solar year) की लगभग अवधि 365 दिन 6 घं 12 मि 30 सेक के आसपास बताई (विभिन्न पाठांतरों में सूक्ष्म भिन्नताएँ मिलती हैं), जो जूलियन वर्ष (365.25 दिन) के काफ़ी निकट है। (आधुनिक सौर वर्ष ≈ 365.2422 दिन।)
5.4 त्रिकोणमिति और खगोलीय गणना
- खगोलीय समस्याएँ—जैसे ग्रहों की दीर्घांश, अक्षांश, दिगंश, उन्नति, ऊर्ध्वाधर छाया, उदय-अस्त समय आदि—निकालने में त्रिकोणमिति (ज्या-सारणियाँ) का उपयोग उन्होंने व्यवस्थित ढंग से किया।
- ज्या (sine) की तालिका के माध्यम से किसी कोण के लिए ज्या-मूल्य निकालने, तथा ज्या-मूल्यों से कोण ज्ञात करने की प्रक्रियाएँ उनके यहाँ सूत्रात्मक रूप से दी गई हैं।
6. आर्यभट्ट की कालगणना (Calendrics)
- तिथि, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष—इन समस्त पारंपरिक खंडों की परिभाषाएँ और परस्पर-सम्बन्ध उन्होंने स्पष्ट किए।
- लूनर-सोलर कैलेंडर (चन्द्र-सौर) के समन्वय हेतु अधिक-मास (intercalary month), क्षय-मास आदि की संकल्पनाएँ भारतीय परम्परा में विकसित थीं; आर्यभट्ट ने इनके गणनात्मक पक्ष पर काम किया।
- उनके युग-मान (महायुग, कलियुग) पर आधारित बड़े चक्र खगोलीय इकाइयों को एक साझा मानदंड देने हेतु प्रयुक्त हुए।
7. शैली, पद्धति और भाषा
- सूत्रात्मक (versified) शैली: आर्यभट्ट ने संस्कृत के छंदों में लिखकर बड़े-बड़े विचारों को अत्यंत संक्षेप में बँधा। इससे रचना याद रखने में आसान तो थी, पर समझने में कठिन—इसीलिए बाद में भाष्य (commentaries) हुए।
- अक्षरांकीय पद्धति (Coded numbers): उन्होंने संख्याओं को अक्षरों के माध्यम से (जैसे ‘क’ = 1, ‘ख’ = 2, इत्यादि; अलग-अलग पद्धतियाँ रही हैं) व्यक्त किया, ताकि जटिल संख्याएँ भी श्लोक के भीतर समा सकें।
- व्यावहारिकता: उनकी विधियाँ केवल दार्शनिक/सैद्धांतिक नहीं थीं; वे ग्रहों की स्थितियाँ, ग्रहण के समय, कालगणना आदि का व्यावहारिक हिसाब निकालने के लिए थीं। यह दर्शाता है कि उनके काल में खगोल विज्ञान महज विद्या नहीं, सामाजिक-धार्मिक कर्मकाण्डों और पंचांग निर्माण का व्यावहारिक उपकरण भी था।
8. प्रभाव और विरासत
8.1 भारतीय परम्परा पर प्रभाव
- भास्कर I (7वीं सदी) ने आर्यभटीय पर विस्तृत भाष्य लिखकर उनकी गणनाओं और पद्धतियों को समझाया।
- ब्रह्मगुप्त (598–668 ई.), यद्यपि कुछ मुद्दों पर असहमति रखते थे (जैसे शून्य के बीजीय नियमों को उन्होंने अलग से व्यवस्थित किया, और कभी-कभी आर्यभट्ट की कुछ मान्यताओं की आलोचना भी की), पर उन्होंने भी आर्यभट्ट के मॉडलों से संवाद रखते हुए आगे विकास किया।
- लल्ल (8वीं सदी), महावीराचार्य (9वीं सदी), भास्कराचार्य (Bhāskarāchārya, 12वीं सदी)—इन सबकी रचनाओं में आर्यभट्ट का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रभाव दिखता है।
- केरल स्कूल (14वीं–16वीं सदी) के गणितज्ञों (माधव, नीलकंठ सोमयाजी आदि) तक में, त्रिकोणमिति और अनन्त श्रेणियों के विकास के बाद भी आर्यभट्ट की परम्परा के सूत्र एक आधार की तरह विद्यमान रहे।
8.2 इस्लामी और यूरोपीय गणित/खगोलशास्त्र पर प्रभाव
- मध्यकाल में भारतीय खगोल-ग्रंथों का अरबी में अनुवाद हुआ। आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त की गणनाएँ इस्लामी जगत में पहुँचीं।
- अल-बिरूनी (11वीं सदी) ने भारतीय गणित-खगोल पर विस्तृत चर्चा की है, जिसमें आर्यभट्ट की परम्परा का विशेष उल्लेख है।
- साइन (sine) शब्द का उद्गम भी भारतीय ‘ज्या’ से ही माना जाता है (ज्या → जिबा/जैब → लैटिन ‘sinus’ → sine)।
- इस तरह भारत से निकला यह ज्ञान-प्रवाह यूरोप तक पहुँचा और वहाँ के रेनेसाँ काल में गणित और खगोल विज्ञान के विकास में पृष्ठभूमि-संरचना का काम किया।
9. कुछ प्रचलित भ्रांतियाँ (Misconceptions) और उनका स्पष्टीकरण
- “आर्यभट्ट ने शून्य का आविष्कार किया” — यह वाक्य लोकप्रिय है, पर सटीक नहीं।
- आर्यभट्ट ने स्थान-मूल्य प्रणाली का व्यवस्थित उपयोग किया, पर शून्य को एक स्वतंत्र संख्या मानकर उसके साथ गणितीय नियम (जैसे 1/0, 0/0, 0×a आदि) स्पष्ट रूप से परिभाषित करने का श्रेय अधिकतर ब्रह्मगुप्त को जाता है।
- फिर भी यह कहना उचित है कि आर्यभट्ट उस परंपरा के महान स्तंभ हैं जिसने शून्य सहित दशमलव प्रणाली को परिपक्व किया।
- “आर्यभट्ट ने सूर्य-केंद्रित (heliocentric) सिद्धांत दिया” —
- आर्यभट्ट ने पृथ्वी के घूर्णन का सिद्धान्त दिया, पर पूर्ण heliocentric मॉडल (जैसे कोपरनिकस का) नहीं।
- उनके ग्रह-गतियों का मॉडेल मुख्यतः geocentric (पृथ्वी-केंद्रित) ही था, हालाँकि कुछ स्थानों पर वे गणनात्मक सरलीकरण हेतु औसत सूर्य-केंद्र का उपयोग करते हैं; यह आधुनिक heliocentrism जैसा नहीं है।
- “π को अपरिमेय सिद्ध करने का श्रेय” —
- आर्यभट्ट ने π का बहुत सटीक आसन्न मान दिया, और यह बताया कि यह मान निश्चित नहीं (आसन्न) है।
- पर, औपचारिक रूप से π के अपरिमेय होने का प्रमाण बहुत बाद में (18वीं सदी में लैम्बर्ट आदि) आया।
- अतः आर्यभट्ट का योगदान π के बेहद सटीक अनुपात और उसे आसन्न बताने में है, न कि उसकी अपरिमेयता के औपचारिक प्रमाण में।
10. आर्यभट्ट की वैज्ञानिक मानसिकता
- अनुभव और गणना पर जोर: ग्रहण का वैज्ञानिक स्पष्टीकरण दे कर उन्होंने दिखाया कि प्राकृतिक घटनाओं का कारण प्राकृतिक ही होता है, जिसे सटीक गणना से समझा जा सकता है।
- सुसंगत संख्यात्मकता: उनके मॉडल में स्थिरांक (constants), चक्र (cycles), सारणियाँ (tables)—सब कुछ संख्यात्मक रूप में व्यवस्थित है।
- शिक्षण-शैली: अत्यंत संक्षिप्त श्लोक-रूप में नियम देना दर्शाता है कि तत्कालीन परम्परा में कंठस्थ करना, फिर गुरु/भाष्यकार के मार्गदर्शन से अर्थ-विस्तार समझना, पद्धति थी। यह आज के “टेक्स्टबुक स्टाइल” से अलग, पर अपने समय के लिए उपयोगी थी।
11. कुछ महत्त्वपूर्ण संख्याएँ और विचार (संक्षेप में)
- जन्म: 476 ई. (स्वीकृत पारंपरिक मान)
- प्रमुख कृति: आर्यभटीय (499 ई. के आस-पास लिखी मानी जाती है)
- π का मान: ≈ 3.1416 (62,832/20,000)
- ज्या-सारणियाँ (sine tables) का प्रामाणिक प्राचीन उपयोग।
- कुट्टक पद्धति: अनिश्चित रैखिक समीकरणों को हल करने का प्राचीन एल्गोरिद्म।
- पृथ्वी के घूर्णन की स्वीकृति; ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों की व्याख्या।
- दशमलव स्थान-मूल्य प्रणाली का व्यवस्थित अनुप्रयोग; शून्य को placeholder के रूप में स्वीकार्यता (पर शून्य के बीजीय नियमों का विस्तृत विधान बाद के गणितज्ञों से)।
12. आज के सन्दर्भ में आर्यभट्ट
- भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) के पहले उपग्रह (1975) का नाम “आर्यभट्ट” रखा गया—यह विज्ञान के प्रति भारत की दीर्घ परम्परा और आर्यभट्ट के योगदान के सम्मान का प्रतीक था।
- आधुनिक गणित/खगोल विज्ञान की कक्षाओं में जब त्रिकोणमिति, π, स्थान-मूल्य प्रणाली या ग्रहण की गणना पढ़ाई जाती है, तो आर्यभट्ट का ऐतिहासिक महत्व अनिवार्य रूप से सामने आता है।
- इतिहास-लेखन के लिहाज से भी आर्यभट्ट का महत्व यह दिखाने में है कि वैज्ञानिक दृष्टि और गणना की सूक्ष्मता भारत की परम्परा में बहुत पुरानी और गहरी है।
13. निष्कर्ष
आर्यभट्ट भारतीय गणित और खगोलशास्त्र की एक अग्रणी, मौलिक और अत्यंत प्रभावशाली विभूति हैं। उन्होंने:
- गणित में दशमलव स्थान-मूल्य पद्धति के व्यावहारिक उपयोग,
- π का सटीक आसन्न मान,
- ज्या-सारणियों के माध्यम से त्रिकोणमिति की मजबूत नींव,
- कुट्टक जैसे एल्गोरिथ्मिक हल,
- खगोल विज्ञान में पृथ्वी के घूर्णन की स्वीकृति और ग्रहण के वैज्ञानिक कारण,
- कालगणना के सूक्ष्म नियम—इन सबको एक साथ आर्यभटीय में सघन रूप से प्रस्तुत किया।
उनकी वैज्ञानिकता का महत्त्व इस बात में है कि वे पौराणिक प्रतीकों से परे जाकर पर्यवेक्षण, गणना और तर्क पर टिके। यही कारण है कि उनका प्रभाव भारत से बाहर तक फैलता गया, और आज भी वे भारतीय विज्ञान की सर्वोच्च परंपराओं के प्रतीक के रूप में याद किए जाते हैं।
संक्षेप में, यदि हम पूछें “आर्यभट्ट कौन था?”, तो उत्तर होगा—वह वह ऋषि-वैज्ञानिक था जिसने संख्या, कोण, समय और आकाश—चारों के रहस्य खोलने के लिए गणना को मंत्र की तरह साध लिया, और आने वाली सहस्राब्दियों के लिए गणित-खगोल की राह रौशन कर दी।